"जैन तीर्थ गिरारगिरी" में आपका स्वागत है

वि. सं. १८४४ में पुण्यशाली मरैयावंशी सिंघई धुरमंगल जी तस्य पुत्र लाला हरगोविन्ददास जी ने नमक व्यापार में अकस्मात अनसोचे मुनाफे से प्रभावित होकर यहां पर गजरथ महोत्सव आयोजित करके श्री जिनबिम्ब प्रतिष्ठा एवं जिनालय का निर्माण कराया था | तब तक गिरार पूर्ण विकसित नगर था | काल ने करवट लेकर इस नगर की काया पलटकर इसे वीरान कर दिया | नगर की जगह यह गिरार गिरि में परिवर्तित हो गया | यहां के निवासी यत्र- तत्र चल बसे, साथ ही मूलनायक भगवान ऋषभदेव को भी अन्यत्र ले जाने का निर्णय कर बैठे, किन्तु ऐसा करने वालो को दुःस्वप्नो के माध्यम से सचेत किया गया कि श्री जी को स्थानांतरित न किया जाये | तदनुसार आदिदेव को यथास्थान छोड़ नागरिकगण अन्यत्र स्थानों पर निवास करने लगे | तब से अब तक के हुए काल परिवर्तन के उतार- चढ़ाव का इस जिनालय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा | यह एक महान अतिशय था |

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विद्द्ंयगिरि की पर्वतमालाये

विद्द्ंयगिरि की पर्वतमालाये गिरि विशेषण से सम्मानित करती है| जिनालय का चरण स्पर्श कर प्रवाहित हुई दसार्ण (धसान) नदी अपने जल को पवित्र कर जन- जन तक पवन वीतरागी सन्देश प्रसारित कर रही है|

गिरारगिरी जिनालय

तीर्थंकर माता के 16 स्वप्न

मंदिर का यथार्थ अर्थ

" मंदिर का यथार्थ अर्थ संस्कृत के अनुसार शरण होता है | संसार के दुःखो से भयभीत प्राणियों के सहारे को 'शरण' कहते हैं |
अतः प्रतिदिन मंदिर जी आने का मतलब हैं - अपने आपको दुःखो से छुटकारा दिलाने का उपक्रम करना |"